देवी की पूजा में ज्योति क्यों जगायी जाती है ?

 देवी की पूजा में ज्योति क्यों जगायी जाती है ?





देवीभागवत पुराण में कहा गया है–‘सृष्टि के आदि में एक देवी ही थी, उसने ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न किया; उससे ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र उत्पन्न हुए । अन्य सब कुछ उससे ही उत्पन्न हुआ । वह ऐसी पराशक्ति (महाशक्ति) है ।’


सारा जगत अनादिकाल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शक्ति की उपासना में लगा हुआ है । महाशक्ति ही सर्वोपरि है । ब्रह्म भी शक्ति के साथ पूजे जाते हैं । जैसे पुष्प से गंध अलग नहीं की जा सकती है, गंध ही चारों ओर फैल कर पुष्प का परिचय कराती है; उसी तरह शक्ति ही ब्रह्म का बोध कराती है । सभी जगह शक्ति का ही आदर और बोलबाला है क्योंकि शक्तिहीन वस्तु जगत में टिक ही नहीं सकती है । 



देवताओं के अहंकार के नाश के लिए देवी ने धारण किया ज्योति-अवतार!!!


देवी (माता) की पूजा में ज्योति जगाने (जलाने) का सम्बन्ध देवी के ज्योति-अवतार से है । देवी के ज्योति-अवतार की कथा इस प्रकार से है—


एक बार देवताओं और दैत्यों में युद्ध छिड़ गया । इस युद्ध में देवता विजयी हुए । इससे देवताओं के मन में अहंकार हो गया । सभी देवता अपने मन में कहते—‘यह विजय मेरे कारण हुई है, यदि मैं न होता तो विजय नहीं हो सकती थी ।’ 


मां जगदम्बा बड़ी कृपालु हैं । वे देवताओं के अहंकार को समझ गयीं । उनको पता था कि यह अहंकार देवताओं को ‘देवता’ नहीं रहने देगा । अहंकार के कारण ही असुर ‘असुर’ कहलाते हैं । देवताओं में वही अहंकार जड़े जमा रहा है, इसके कारण संसार को फिर कष्ट का सामना करना पड़ेगा।


देवताओं के अहंकार के नाश के लिए देवी एक ऐसे तेज:पुंज के रूप में उनके सामने प्रकट हो गयीं, वैसा तेज:पुंज आज तक किसी ने देखा न था । उस तेज:पुंज को देखकर सभी देवता हक्के-बक्के रह गये और एक-दूसरे से पूछने लगे—‘यह क्या है ? देवताओं को आश्चर्यचकित करने वाली यह माया किसके द्वारा रची गयी है ?’


भ्रमित हुए देवराज इन्द्र ने वायुदेव को उस तेज:पुंज के बारे में पता लगाने के लिए भेजा । घमण्ड से भरे हुए वायुदेव ने उस तेज:पुंज के पास गए । तेज:पुंज ने पूछा—‘तुम कौन हो ?’


वायुदेव ने कहा—‘मैं वायु हूँ । मातरिश्वा हूँ । सबका प्राणस्वरूप हूँ । मैं ही सम्पूर्ण जगत का संचालन करता हूँ ।’


तेज:पुंज ने वायुदेव के सामने एक तिनका रखकर कहा—‘यदि तुम सब कुछ संचालन कर सकते हो तो इस तिनके को चलाओ ।’


वायुदेव ने अपनी सारी शक्ति लगा दी पर तिनका टस-से-मस न हुआ । वे लज्जित होकर इन्द्रदेव के पास लौट आए और कहने लगे कि ‘यह कोई अद्भुत शक्ति है, इसके सामने तो मैं एक तिनका भी न उड़ा सका ।’


देवराज इन्द्र ने फिर अग्निदेव को बुलाकर कहा—‘अग्निदेव ! चूंकि आप ही हम लोगों के मुख हैं इसलिए वहां जाकर यह मालूम कीजिए कि ये तेज:पुंज कौन है ? ‘


इन्द्र के कहने पर अग्निदेव तेज:पुंज के पास गए । तेज:पुंज ने अग्निदेव से पूछा —‘तुम कौन हो ? तुममें कौन-सा पराक्रम है, मुझे बतलाओ ?’


अग्निदेव ने कहा—‘ मैं जातवेदा हूँ, अग्नि हूँ । सारे संसार को दग्ध करने की ताकत मुझमें है ।’ 


तेज:पुंज ने अग्निदेव से उस तिनके को जलाने के लिए कहा । अग्निदेव ने अपनी सारी शक्ति लगा दी पर वे उस तिनके को जला न सके और मुंह लटकाकर इन्द्रदेव के पास लौट आये ।


तब सभी देवता बोले—‘झूठा गर्व और अभिमान करने वाले हम लोग इस तेज:पुंज को जानने में समर्थ नहीं है, यह तो कोई अलौकिक शक्ति ही प्रतीत हो रही है । इन्द्रदेव ! आप हम सब के स्वामी हैं, अत: आप ही इस तेज:पुंज के बारे में पता लगाइए ।’


तब सहस्त्र नेत्रों वाले इन्द्र स्वयं उस तेज:पुंज के पास पहुंचे । इन्द्र के पहुंचते ही वह तेज:पुंज गायब हो गया । यह देखकर इन्द्र बहुत लज्जित हुए ।  तेज:पुंज के उनसे बात तक न करने के कारण वे अपने-आप को मन में छोटा समझने लगे । वे सोचने लगे कि अब मैं देवताओं को क्या मुंह दिखाऊंगा । मान ही महापुरुषों का धन है, जब मान ही न रहा तो इस शरीर का त्याग करना ही उचित है । इन्द्रदेव का सारा अहंकार नष्ट हो गया । 


तभी गगनमण्डल में आकाशवाणी हुई कि—‘इन्द्रदेव ! तुम पराशक्ति का ध्यान करो और उन्हीं की शरण में जाओ ।’ इन्द्रदेव पराशक्ति की शरण में आकर मायाबीज का जप करते हुए ध्यान करने लगे।


एक दिन चैत्रमास की नवमी तिथि को मां पराम्बा (महाशक्ति) ने अपना स्वरूप प्रकट किया । वे अत्यन्त सुन्दरी थीं, लाल रंग की साड़ी पहने उनके अंग-अंग से नवयौवन फूट रहा था । उनमें करोड़ों चन्द्रमाओं से बढ़कर आह्लादकता थी । करोड़ों कामदेव उनके रूप पर न्यौछावर हो रहे थे । उन्होंने चमेली की माला व वेणी व लाल चंदन धारण किया हुआ था ।


देवी बोलीं—‘मैं ही परब्रह्म हूँ, मैं ही परम ज्योति हूँ, मैं ही प्रणवरूपिणी हूँ । मेरी ही कृपा और शक्ति से तुम लोगों ने असुरों पर विजय पायी है । मेरी ही शक्ति से वायुदेव बहा करते हैं और अग्निदेव जलाया करते हैं । तुम लोग अहंकार छोड़कर सत्य को जानो ।’


देवी के वचन सुनकर देवताओं को अपनी भूल ज्ञात हो गयी और वे अहंकार रूपी असुर से ग्रस्त होने से बच गये । उन्होंने क्षमा मांगकर देवी से प्रसन्न होने की प्रार्थना की और कहा कि आप हम पर ऐसी कृपा करें कि हममें कभी अहंकार न आए ।


तब से देवी की पूजा—अष्टमी, नवरात्र व जागरण आदि में माता के ज्योति अवतार के रूप में ज्योति या अखण्ड ज्योति जगायी जाती है । नवरात्र में प्रतिदिन देवी की ज्योति जगाकर उसमें लोंग का जोड़ा, बताशा, नारियल की गिरी, घी, हलुआ-पूरी आदि का भोग लगाया जाता है ।



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